जन्मों जन्मों से अनन्त दुख भोग रहे जीव को, अपने समस्त सत्कर्मों के फल स्वरूप, किन्हीं आत्मज्ञानी महापुरुष का संग प्राप्त हो जाए, तब कहीं जाकर उसे अपने जीवन का लक्ष्य स्पष्ट होता है।
उन संत के मार्गदर्शन से, वह सही मार्ग को पहचान कर साधन की दौड़ में लगता है। कभी दौड़ते, कभी गिरते, तो कभी पुनः उठकर, उत्साह से चलते चलते, कितनी ही कठिनाइयों को सहन कर, वह कर्म की धारा में, साधन में, आकंठ डूब पाता है।
पर उसके दुख की निवृत्ति नहीं हो पाती। क्योंकि संकट यह है कि जितने समय वह साधन में डूबा रहता है, अज्ञान का आवरण हटा रहता है, पर पुनः व्यवहार में आते ही, फिर से वही आवरण पड़ जाता है। यों वर्षों तक, बार बार आवरण भंग और फिर फिर आवरण पड़ते रहने से, उसे जीवन बोझ लगने लगता है।
ऐसी अवस्था में जब तड़प असह्य हो जाती है, जीभ पर छाले और आँखों में जाले पड़ जाते हैं, कि और कब? कब? आखिर कब? तब जिसका भगवान के सिवा दूसरा कोई बचा ही नहीं, यदि भगवान स्वयं ही कृपा करके, अपने हाथों से उस अज्ञान के आवरण को न हटा लें तो और कौन उसका सहारा बने?
यही गोपी चीर हरण प्रसंग का रहस्य है। कन्हैया छोटे से थे, या गोपियाँ तो उनकी अपनी थीं, या पूर्वजन्म की कोल भील थीं, या ये था कि वो था, इन बकवास तर्कों से क्या होगा? इस लीला का अर्थ न जानने से ही, संतों की तो जीभ सूख गई पर उत्तर देते न बना, और असंतों ने भले कुल की कन्याओं को बरगला कर खूब खेल खेले।
विचार करें कि गोपी कौन है? "गो" माने इन्द्रियाँ, "पी" माने सुखा डालना। जिसने अपनी इन्द्रियों में बह रहे वासना रस को सुखा डाला। लाख विषय आँख के सामने से गुजरते हों, पर अंत:करण में वासना की एक रेखा तक न खिंचती हो, ऐसा साधक गोपी है। और यमुना?
"कर्म कथा रविनंदिनी बरनि।"
साधन की, कर्म की धारा ही यमुना है।
तो कर्म की धारा यमुना में आकंठ डूबे जिस साधक का साधन पूर्ण हो गया, उसे तो फल मिलने का समय आ गया। तब क्यों न भगवान कृपा कर दें? क्यों न उसके स्वरूप पर पड़ा अज्ञान का आवरण उठा लें?
बस यही हुआ, पर्दा हट गया, अज्ञान मिट गया, आत्मस्वरूप साक्षात हो गया, उपलब्धि हो गई, मंजिल मिल गई, बात बन गई। इसमें संशय कहाँ रहा?
जो अभी गोपी नहीं हुआ, वह लोकेशानन्द की बात मानकर खूब साधन किया करे। और जो गोपी हो गया, वह दिनरात तड़पा करे, कि भगवान कृपा तो तूने खूब की, बस यह अंतिम कृपा कब होगी? मेरा वस्त्र कब चुराया जाएगा?
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