"मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थिति:"
मुक्ति का अर्थ होता है अपने स्वरूप में स्थित हो जाना।
अभी हम अपने स्वरूप से भिन्न किसी और ही स्थिति को प्राप्त हो गए हैं।
इस अन्यथा स्थिति को छोड़कर अपने वास्तविक स्वरूप में, स्व-स्वरूप में स्थित हो जाने को ही ‘मुक्ति’ कहते हैं।
मोक्ष के विषय में लोगों के मन में बड़ी विचित्र धारणाएँ होती हैं, भिन्न-भिन्न विचार होते हैं।
कोई सोचता है स्वर्ग में जाना मोक्ष है।
कोई सोचता है भगवान के लोक में, भगवान के पास जाना मोक्ष है, या फिर भगवान के समान ऐश्वर्य प्राप्त करना अथवा भगवान के जैसा रूप प्राप्त करना मोक्ष है।
किसी को लगता है जन्म-मरण के पिण्ड से छुटकारा पा जाना या पुनः जन्म नहीं लेना मोक्ष है।
अपने आप को इस शरीर के साथ बाँध कर यह शरीर मैं हूँ ऐसा मान लिया है। यही दुःख का कारण है।
वेदान्त कहता है- तुम पहले से ही मुक्त हो, लेकिन अज्ञानता वश अपने आप को बन्धन में डाल कर‚ फिर समझते रहते हो कि तुम बद्ध हो।
तुम्हारा बन्धन वास्तविक नहीं है, वह तो माना हुआ है।
"मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः"
मन से कल्पना करके ही तुम बन्धन में आ गये हो। इसके अतिरिक्त दूसरा कोई बन्धन है ही नहीं।
बन्धन क्या है यह भले ही हमारी समझ में न आता हो, लेकिन सभी को वह दुःख रूप में अनुभव में आता है।
यदि किसी से कहें कि तुम बन्धन में हो, तो वह कहेगा, बन्धन कहाँ है?
मैं तो स्वतंत्र हूँ।
बन्धन माने कोई रस्सी से बँधा होगा नहीं होता। दुःखरूप में जो अनुभव में आता है वही बन्धन है।
उसकी मुक्ति कैसे हो?
उसके लिए मोक्ष क्या है?
"हित्वा त्यक्त्वा अन्यथा रूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः",
सुखी दुःखी होने वाला तो मन है।
तुम मन हो क्या?
यह शरीर तुम हो क्या?
शरीर तुम्हारा है, तुम शरीर नहीं हो।
मन भी तुम्हारा है, तुम स्वयं मन नहीं हो।
मन के साथ तादात्म्य हो जाने के कारण ही जीवन में शोक-मोह आदि लगे रहते हैं।
बुद्धि के साथ तादात्म्य करके ही लोग स्वयं को बड़ा ज्ञानी अथवा अज्ञानी मानते-समझते रहते हैं।
ज्ञान का, अज्ञान का, सब का अभिमान करके बैठ जाते हैं। यह सब अन्यथा रूप है।
यह सब हमारा ‘आपा’ अथवा ‘मैं’ नहीं है।
इन सब का जो दृष्टा है, वही वास्तविक ‘मैं’ है।
अपने शरीर को सब देखते-जानते हैं।
जिस चीज को हम देखते हैं, जैसे किताब को देखते हैं, तो वह किताब हम थोड़े ही हो सकते हैं?
इसी प्रकार जब हमारी देह को भी हम देखते हैं, जानते हैं तब यह देह हम कैसे हो सकते हैं?
जैसे, किताब को देखने वाला किताब से भिन्न होता है, वैसे ही देह को देखने वाला भी देह से भिन्न होता है। वह स्वयं देह नहीं हो सकता। लेकिन हम सब यही मान बैठे हैं कि यह देह मैं हूँ।
यही हमारा मूल बन्धन है। जो हमारा आपा नहीं, स्व नहीं, उसके साथ हमने प्रगाढ़ तादात्म्य कर लिया है कि यही मैं हूँ।
इसी को बन्धन कहते हैं।
स्वर्ग आदि में जाना मोक्ष नहीं है। किसी अन्य रूप को प्राप्त करना भी मोक्ष नहीं है।
ऐश्वर्य प्राप्ति भी मोक्ष नहीं है। कोई नया ही अनुभव प्राप्त करना, आँखों से प्रकाश देखना अथवा आँखें बन्द करके कोई अन्य प्रकाश देखना, ये सब भी मोक्ष नहीं है।
आँखें बन्द करके प्रकाश देखने की क्या आवश्यकता है?
देखना ही है तो आँखे खोलकर देखो बाहर बड़ा अच्छा प्रकाश है।
सूर्य का प्रकाश देख लो, चन्द्रमा का देख लो। लोग न जाने किस-किस चीज को मोक्ष समझते रहते हैं।
श्री शुकदेव जी कहते हैं----
"अन्यथा रूपं हित्वा स्वरूपेण व्यवस्थितिः"
जो मेरा अपना स्वरूप नहीं है वह अन्यथा रूप है। उसको छोड़ कर अपने स्वरूप में बैठ जाना है, स्थित हो जाना है। बस यही मोक्ष है।
उसके लिए न तो दूसरे देश में (लोक-लोकान्तर में) जाना है, न दूसरे काल में, और न ही किसी दूसरी स्थिति को प्राप्त करना है। दूसरा और कुछ नहीं करना है। न ही अपने शरीर को बदलना है।
अर्थात देशान्तरापत्ति, लोकान्तरापत्ति, कालान्तरापत्ति या अवस्थान्तरापत्ति- इन सबमें से कोई भी मोक्ष नहीं है।
यहीं पर रहते-रहते, जब विवेक हो जाए, तब उसी समय हम मुक्त हैं।
तब देह रहते हुए भी हम मुक्त हैं, देह के बिना मुक्त ही है।
भगवान श्रीकृष्ण इस धरा पर आये थे धर्म की संस्थापना के लिए।
जब तक वे अध्यात्म ज्ञान का उपदेश न करें, तब तक धर्म संस्थापना नहीं हो सकती थी। क्योंकि धर्म वह होता है जिससे सबकी धारणा हो।
समाज की धारणा तभी हो सकती है जब प्रत्येक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से प्रेम हो। प्रेम के बिना धारणा नहीं हो सकती, संगठन नहीं हो सकता।
हम लोग राष्ट्रीय एकता की, संगठन आदि की बहुत बातें करते हैं। लेकिन परस्पर द्वेष भी करते रहते हैं।
राष्ट्रीय एकता के चाहे जितने नारे लगाते रहें, परन्तु एक दूसरे से प्रेम न कर सकें तो एकता कहाँ से होगी?
धारणा कैसे होगी?
जब तक हम औरों को जान नहीं लेते तब तक उनसे प्रेम नहीं होता। वे सब हमसे भिन्न कोई अन्य नहीं है, हमारा अपना स्व-स्वरूप ही उन सब के रूप में भासित हो रहा है, इस प्रकार का ज्ञान-अद्वैत ज्ञान हुए बिना प्रेम नहीं हो सकता।
जब तक हम अपने आपको दूसरे में देख नहीं लेते तब तक उनसे प्रेम होता नहीं। प्रेम हुये बिना उनकी सेवा होती नहीं।
तात्पर्य यही है कि अद्वैत का ज्ञानी ही धर्मसंस्थापना कर सकता है।
महाभारत में भी हम देखते हैं कि वहाँ केवल युद्ध या काट-छाँट ही नहीं है, वहाँ भी भगवान श्रीकृष्ण ने धर्म संस्थापना के लिए अर्जुन को भगवद् गीता का उपदेश दिया है।
"राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।"
गीता जी के प्रस्तुत श्लोक में भगवान ने उस अद्वय अज्ञान को अव्ययम् के साथ-साथ धर्म्य भी कहा है।
उद्धव जी भगवान के बाल सखा थे, भगवान के भक्त भी थे। उन्हें भी भगवान ने वही ज्ञान दिया था।
भगवान श्रीकृष्ण ने अपने जीवन काल में ये ही दो महत्त्वपूर्ण उपदेश दिये थे।
एक अर्जुन को और दूसरा उद्धव जी को।
श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि हमारी जो एकादश उपाधियाँ हैं----
"पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा अन्तःकरण, इन्हीं के साथ तादात्म्य करके हम अपने स्वरूप से दूर हट गये हैं।"
इसी बात को समझ कर उस तदात्म्य को समाप्त करना है,अपने स्वरूप में स्थित हो जाना है।
यही मुक्ति है। इस मोक्ष की प्राप्ति एक क्षण में भी हो सकती है।
क्योंकि उसके लिए न तो किसी दूसरे देश में - देशान्तर में जाना है न ही दूसरे काल में,न ही उसके लिए कुछ और करना है।
जो भी सब हो रहा है, बस उसका दृष्टा बन जाना है, कर्ता नहीं। यही मोक्ष का लक्षण है।
कर्ता बनते ही, परिणाम स्वरूप हमें भोक्ता भी बनना ही पड़ता है। यह कर्ता-भोक्ता बनना ही बन्धन है। ज्यों ही दृष्टा बन जाते हैं, त्यों ही मुक्त हो जाते हैं।