*।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।*
*महर्षि मेँहीँ अमृत-कलश, 1.69 : कोशिश करो तो ईश्वर मदद करेंगे*
*(साभार – सत्संग-सुधा सागर, 69)*
*बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि। महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।।*
प्यारे लोगो!
श्रीराम पिताजी की आज्ञा से वनवास गए। वनवास में कितना कष्ट होता है, लोग जानते हैं। उनको वनवास के लिए उनके पिता ने नहीं कहा कि आप जंगल जाएँ, बल्कि वन जाने के संबंध में वे मौन रहे। उनका मन तो था कि श्रीराम जंगल नहीं जाए तो अच्छा हो। कैकेई के कारण ही श्रीराम वन गए; क्योंकि उन्होंने ही कहा कि श्रीराम वन जाएँ। पिता के मौन रहने का श्रीराम समझ गए कि मुझे वन जाना चाहिए। वन गए और सब कष्टों को सहन किया और संसार का यह कार्य कि दुष्टों का दमन करना चाहिए, किया। भरतजी ननिहाल से घर आए। उनको मालूम हुआ कि श्रीराम जंगल गए। *पिता के मरने का उनको उतना दु:ख नहीं हुआ, जितना कि श्रीराम के वन जाने का।* श्रीराम को लौटाने के लिए भरतजी उनके पास जंगल गए; किन्तु श्रीराम ने कहा कि पिता की आज्ञा मेरे लिए वनवास की है। चौदह वर्षों में एक दिन भी कम रहने से मैं जा नहीं सकता। भरत लौट आए। श्रीराम चौदह वर्षों के बाद अयोध्या आए और अच्छी तरह राज्य करने लगे। प्रजा दुःखी नहीं थी। शोषण, लूट आदि नही थी। प्रजा सब तरह से सुखी थी। श्रीराम ने समझा कि *प्रजा तो संसार में सुखी हैं, किन्तु शरीर छोड़ने पर भी सुखी रहें, इसके लिए श्रीराम को चिन्ता हुई।*
महाराजा अशोक भी बहुत अच्छा शासन करते थे। उन्होंने भी प्रजा की मुक्ति के लिए उपाय किया था। *श्रीराम ने समझा कि प्रजा को मामूली सुख - स्वर्ग तो क्या, जिससे मुक्ति हो जाय, ऐसा उपाय करना चाहिए।* इसलिए श्रीराम ने एक बार सभा बुलाकर सबों से कहा कि मैं ममता में आकर नहीं कहता हूँ। बल्कि आपकी भलाई के लिए कहता हूँ। *यह मनुष्य-शरीर बड़े भाग्य से मिलता है। यह शरीर देवताओं को भी कठिनाई से मिलता है।* आप उच्च वर्ण के हैं या आपको किसी प्रकार का विशेष गुण है, इसलिए बड़े नहीं हैं; बल्कि यह मनुष्य-देह ही बड़े भाग्य से मिलती है। *यह शरीर साधन का भण्डार और मोक्ष का द्वार है।* मोक्ष छुटकारा, मुक्ति को कहते हैं। कोई कारागार में पड़ा हो, उससे छूट जाय, तब कारागार से उसकी मुक्ति है। इसी प्रकार *शरीर रूप कारागार से जीव छूट जाय, यह मुक्ति है।* यह बहुत बड़ी चीज है। मोक्ष और मुक्ति किसकी? जो बंधा हुआ है, जो कैद है। *एक-एक जीवात्मा एक-एक शरीर में कैद है।* यह शरीर पिण्ड है और बाहर का संसार ब्रह्माण्ड है। *पिण्ड और ब्रह्माण्ड में बड़ा सरोकार है।* संसार और शरीर में इतना सम्बन्ध है कि जितने तत्त्वों से शरीर बना है, संसार भी उतने ही तत्त्वों से बना है अर्थात् आपकी देह में पांच तत्त्व - क्षिति, जल, पावक, समीर और गगन है। उसी तरह संसार में भी उपर्युक्त पांचों तत्त्व हैं। यथा –
*छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित यह अधम सरीरा।। - रामचरितमानस*
इन तत्त्वों का वजन तो किया नहीं जा सकता, किंतु जितने तत्त्व शरीर में हैं, उतने ही तत्त्व संसार में भी है। जितने तल संसार के हैं, शरीर के भी उतने ही तल हैं। माया के पिण्ड में भी चार तल (स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण) हैं और संसार में भी चार तल हैं। यह मोटा शरीर जो बना है, इसका बारीक रूप इसमें नहीं हैं – कहा नहीं जा सकता। एक मोटा घर आप देखते हैं, तो उसका सूक्ष्मरूप पहले मन में बना लेते हैं, फिर स्थूल रूप बनाते हैं। बड़े-बड़े महल बनाने में चित्र कागज पर खींचकर कारीगर को देते हैं और वह घर बना देता है। बिना सूक्ष्म के स्थूल नहीं बनता; उसी प्रकार बिना कारण के सूक्ष्म नहीं बनता। ब्रह्माण्ड का भी कारण माना जाएगा और पिण्ड का भी। जैसे एक बर्तन बनाना चाहें, तो उस बर्तन के लायक मिट्टी लेकर बर्तन बना सकते हैं, सम्पूर्ण संसार की मिट्टी लेकर नहीं। भूमण्डल भर की मिट्टी लेकर नहीं। उसे आप नाप नहीं सकते; किंतु एक बर्तन में जो मिट्टी लगी है, वह कम है। पदार्थरूप में एक कम है, दूसरा विशेष है। थोड़ी-सी मिट्टी कारण है और अधिक मिट्टी, जिसमें से थोड़ी-सी मिट्टी ली गई, महाकारण है। जिससे सारा पिण्ड-ब्रह्माण्ड बना है, वह प्रकृति है। प्रकृति के जितने अंशों की जरूरत पिण्ड-ब्रह्माण्ड बनाने में होती है, वह अंश कारण है। और फिर सूक्ष्म और स्थूल होता है। ये चारों जड़ हैं।
*मनुष्य-शरीर में भी चार तल हैं और ब्रह्माण्ड में भी चार तल। दोनों में इतना सम्बन्ध है कि पिण्ड के स्थूल तल पर जब रहते हैं, तब संसार के भी स्थूल तल पर रहना होता है।* जाग्रत से स्वप्न में जाने पर आपको स्थूल शरीर का ज्ञान नहीं होता, तो आपको स्थूल संसार का भी ज्ञान नहीं रहता। उस समय आप अपने हित-अनहित को नहीं जानते। किस बिछौने पर लेटे हैं, यह भी ज्ञान नहीं रहता। किंतु जगने पर सब मालूम होता है। इसी तरह अपने शरीर के सूक्ष्मतल में जाएँ, तो संसार के भी सूक्ष्म तल का ज्ञान होगा। हमलोग समस्त शरीर में फैले हैं, तो संसार में भी फैले हैं।
*शरीर के स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण के तलों से छूट जाएँ, तो संसार के भी सब तलों को पार कर जाएँगे।* इसके लिए ऐसी बात नहीं है कि शरीर छूटने के बाद मुक्ति होगी - ऐसा ज्ञान नहीं दिलाया गया है। यहाँ तो कहा गया है -
*लहहिं चारि फल अछत तनु,..........*
*जीवनमुक्त ब्रह्म पर, चरित सुनहिं तजि ध्यान। जे हरिकथा न करहिं रति, तिन्हके हिय पाषान।। - रामचरितमानस*
तथा –
*जीवन मुक्त सो मुक्ता हो........ - संत कबीर साहब*
जिन्होंने जीवनकाल में हीं चारो तलों से अपना छूटकारा कर लिया, अपने को प्रत्यक्ष पा लिया, तब उनको अपने लिए कुछ करना नहीं रह जाता। एक काम रहता है कि *संसार में वे रहते हैं, तो संसार का उपकार करें। जहाँ सत्संग होता है, वहाँ वे जाते हैं; क्योंकि ऐसे महान जन के जाने से ही सत्संग होता है। नहीं तो सत्संग, सत्संग नहीं होता।*
श्रीराम को अपने लिए कुछ करना नहीं था। उन्होंने लोगों को मुक्ति में ले जाने के लिए सभा की और मुक्ति का उपदेश दिया। उन्होंने कहा –
*साधन धाम मोक्ष कर द्वारा। पाइ न जेहि परलोक सँवारा।। सो परत्र दुख पावइ, सिर धुनि धुनि पछिताइ। कालहि कर्महि ईस्वरहि, मिथ्या दोष लगाइ।।*
छोटे-छोटे छिद्र को खिड़की और बड़े-बड़े छिद्र को द्वार कहते हैं। आपके शरीर में नौ बड़े बड़े छिद्र हैं। ये ही नौ द्वार हैं। गुरुनानक देव ने कहा -
*नउ दरवाजे नवै दर फीके रसु अंम्रित दसवैं चुईजै।*
इनके अतिरिक्त एक और द्वार है, जिसको दसवाँ द्वार कहते हैं। आपलोग जानते होंगे कि शिवजी ध्यान में बैठे थे, तो देवताओं ने कामदेव को भेजा। शिवजी का ध्यान छूटा, तो उन्होंने अपनी तीसरी आँख खोल दी।
*तब शिव तीसर नयन उघारा। चितवत काम भयउ जरि छारा।।*
नौ दरवाजे तो पहले गिना दिए और शिवजी ने तीसरी दृष्टि खोली, यह दसवाँ द्वार है। *इस तीसरी दृष्टि से, क्रूर दृष्टि से देखा जाय, तो नाश हो और दया की दृष्टि से देखें, तो अमृत बरस जाय।* साधु-संत कहते हैं कि केवल शिवजी को यह आँख नहीं थी, सबको है। किन्तु शिवजी का उस पर काबू था। अब भी जो यत्न करेंगे, तो दसवाँ द्वार देख सकते हैं। *जितने साधु-संत हुए हैं, सभी ने इस तीसरी आँख को अपनाया, तब साधु-संत कहलाए।* शिव, पार्वती और गणेश की तीन-तीन आँखों के होने की बात तस्वीर से जानी जाती है। यह तस्वीर सिखाती है कि तीन-तीन आँखें सबको हैं। *जबतक आप नौ दरवाजे में रहिएगा, तो मुक्ति का द्वार नहीं मिलेगा। दसवें द्वार में जाने से मुक्ति का द्वार मिलेगा।* श्रीराम स्वर्ग-वैकुण्ठ जाने की शिक्षा नहीं देते हैं। वे कहते हैं कि तुम्हारे अंदर मोक्ष का द्वार है, उसको प्राप्त करो। वह मुक्ति दिन-रात के अन्दर नहीं है; देश-काल से छूटी हुई रहती है। देश-काल से छूटा हुआ परमात्मा रहता है –
*सोक मोह भय हरष दिवस निसि, देस काल तहँ नाहीं। तुलसिदास एहि दसा-हीन, संसय निर्मूल न जाहीं।। - गोस्वामी तुलसीदासजी*
परमात्मा देश-काल में नहीं रहते; वे देश-कालातीत हैं। आप यह समझें कि बिना धरती के हम नहीं रह सकते, बिना आकाश के हवा नहीं ले सकते; उसी तरह परमात्मा बिना धरती-आकाश के नहीं रह सकते, तो ऐसी बात नहीं है। *हमलोग साधार हैं; किंतु परमात्मा निराधार हैं।* हमलोगों को पांच तत्वों की आवश्यकता होती है। तीन गुणों के प्रभाव में हम रहते हैं, किंतु परमात्मा के लिए ऐसी बात नहीं है। पिण्ड-ब्रह्माण्ड से छूटकर, समस्त संसार से छूटकर जो अपने को परमात्मा में मिला देता है, वह मोक्ष पाता है। *जीवन काल में जबतक ऐसे पुरुष रहते हैं, तो वे जीवन मुक्त और शरीर छोड़ने पर विदेह-मुक्त कहलाते हैं।* भगवान श्रीराम इसी मोक्ष को प्राप्त करने के लिए कहते हैं। स्वर्ग में जाओ, तो वहाँ भी दु:ख नहीं छूटता। ऊँचनीच पद स्वर्ग में भी होते हैं। ब्रह्मा के धाम में भी अपना कर्मफल भोगना पड़ता है। राजा श्वेत अपने पुण्यकर्म के कारण ब्रह्मलोग गए। *अतिथि-सत्कार नहीं करने के कारण उनको वहाँ भूख-प्यास सताती थी।* ब्रह्मा ने उनको अपने मृत शरीर का मांस खाने की आज्ञा दी। यह कथा बतलाती है कि *ब्रह्मलोक जाने पर भी कर्मफल पीछा नहीं छोड़ता, भोगना पड़ता है।* ऐसे ही जितने लोक-लोकांतर हैं, सबमें यह बात है। वैकुण्ठ से ही जय-विजय गिरे थे। नारदजी मोह लेकर वैकुण्ठ गये; परंतु वहाँ उनका मोह और बढ़ गया। इसीलिए श्रीराम का यह ख्याल नहीं हुआ कि प्रजा किसी लोकलोकांतर में जाकर रहे। बल्कि मोक्ष को प्राप्त करे, इसके लिए शिक्षा दी। उन्होंने कहा –
*एहि तन कर फल विषय न भाई। स्वरगउ स्वल्प अन्त दुखदाई।।*
विषय पांच हैं - रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द। आँख, जिह्वा, नाक, त्वचा और कान - इन पांचों ज्ञान-इन्द्रियों से जो जानते हैं, वे हैं विषय। मन इन्हीं पांचों विषयों को जानता है। श्रीराम कहते हैं कि मनुष्य-शरीर के अतिरिक्त जिस-जिस शरीर में तुम थे, तब तुमको इन पंच विषयों से छूटने का ज्ञान नहीं था। *अब मनुष्य-शरीर में आये हो, अब तुम पांचों विषयों से ऊपर हो जाओ। यह मनुष्य देह का कर्तव्य है।* स्वर्ग के लिए कहा कि स्वर्ग में स्वल्प सुख है। और अंत में दुःख है। उस स्वर्ग का सुख भी थोड़ा है। *मनुष्य-शरीर पाकर जो विषयों में मन लगाता है, उसके लिए कहा कि अमृत के बदले में वह विष लेता है।* नौ द्वारों में विष है और दसवें द्वार में अमृत है। उसे कभी कोई अच्छा नहीं कह सकता, जो कर्जनी (घुँघची) को ले ले और पारसमणि को फेंक दे। *मनुष्य-शरीर पाकर जो विषयों में मन लगाता है, उसको बहुत हानि होती है।*
चार खानियों में चौरासी लाख योनियाँ हैं। अण्डज, पिण्डज, उष्मज और अंकुरज - स्थावर; ये चार खानियाँ हैं। यह अविनाशी जीव चौरासी लाख योनियों में काल, कर्म, स्वभाव, और गुण के घेरे में घूमता रहता है। *कभी दया करके इस जीव को परमात्मा मनुष्य का शरीर देते हैं। यह शरीर संसार-सागर को पार करने के लिए नाव है।* नाव के लिए अनुकूल पवन होना चाहिए। नाव पूरब की ओर जाय और पुरवैया हवा लगे, तो पश्चिम की ओर जाने में सरल होगा। विषय के प्रवाह में हमलोग बह रहे हैं। परमात्मा की कृपारूपी अनुकूल वायु है कि उस विषय की ओर से फेरती है। इस नाव के लिए मल्लाह सद्गुरु हैं। *सद्गुरु उसे कहते हैं, जो स्वयं सद्ज्ञान जाने, सद्ज्ञान की शिक्षा दे, स्वयं परमात्मा का ध्यान करे और दूसरे को ध्यान करने के लिए प्रेरणा दे।*
*मुक्ति मारग जानते, साधन करते नित्त। साधन करते नित्त, सत्त चित जग में रहते।। दिन दिन अधिक विराग, प्रेम सत्संग सों करते। दृढ़ ज्ञान समुझाय, बोध दे कुबुधि को हरते।। संशय दूर बहाय, संतमत स्थिर करते। ‘मेँहीँ ये गुण धर जोई,गुरु सोई सतचित्त।। मुक्ति मार्ग जानते, साधन करते नित्त।*
मनुष्य-शरीर-रूप नाव प्राप्त है। मनुष्य-शरीर होने से ईश्वर की कृपा हुई है और खोज करे, तो उसे सद्गुरु भी मिल जाय। *इस तरह के साज-सामान को पाकर जो भवसागर से अपना उद्धार नहीं करता, वह आत्महिंसा करनेवाले की जो गति होती है, वह पाता है।*
भगवान राम का आज जन्म-दिवस है। हमको चाहिए कि *भगवान के इस उपदेश के अनुकूल मोक्ष प्राप्त करने के लिए अन्तस्साधना करें।* भक्ति करने में संयम कीजिए। संयम यह कि पाप नहीं करें। *पाप करना और ईश्वर की भक्ति; दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते।*
‘हँसब ठठाइ फुलाउब गाला।‘ दोनों एक साथ नहीं हो सकते। इसलिए पाप नहीं कीजिए। सब पापों का मूल है झूठ - झूठ मत बोलो; चोरी नहीं करो; हिंसा नहीं करो; व्यभिचार मत करो; मादक द्रव्यों का सेवन नहीं करो। इन पंच पापों को छोड़ दो। *इन्हें छोड़ने के लिए अपनी शक्ति लगावें तो भगवान भी मदद करेंगे।* लोग समझते हैं कि हम झूठ नहीं बोलेंगे, तो काम नहीं चलेगा; हमसे झूठ नहीं छूट सकता। गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा –
*जौं तेहि पंथ चलइ मन लाई। तौ हरि काहे न होहिं सहाई।।*
*जहाँ आप अपने को बलहीन पाइए, तो भगवान को याद कीजिए और अपनी शक्ति लगाइए, अवश्य मदद मिलेगी।*
एक हनुमान-भक्त था। वह बैलगाड़ी हाँकते हुए कहीं जा रहा था। रास्ते में गाड़ी का पहिया पंक में फँस गया। वह गाड़ी पर बैठे-बैठे हनुमानजी को पुकारने लगा - ‘हे हनुमानजी! हे हनुमानजी! मेरी गाड़ी को पंक से निकाल दो।' आर्त पुकार सुनकर एक सज्जन के रूप में हनुमानजी आए और बोले – ‘हनुमानजी! हनुमानजी!! क्या करते हो? गाड़ी से उतरो, कमर में फेटा बांधो और पहिए में जोर लगाओ। तब हनुमानजी का बल मिलेगा। वे मदद करेंगे।‘ वह भक्त गाड़ी से नीचे उतरता है और कमर कसकर पहिए में जोर लगाता है। परिणामस्वरूप गाड़ी पंक से बाहर निकल जाती है।
इस कथा से यह जानने में आता है कि *अपने से कोशिश करो, तो ईश्वर मदद करेंगे।*
*हिम्मते मरदा मददे खुदा।' God helps those who help themselves.*
*ईश्वर उनकी मदद करते हैं, जो अपने से अपने की मदद करते हैं।* कल कहूँगा कि ईश्वर की भक्ति कैसे कीजिएगा। जो सुनिए, उसको बार-बार विचारिए कि क्या सुना। यह श्रवण है। इसके बाद मनन है - सुने को विचारना, फिर है निदिध्यासन।
आजकल हर्ष का दिवस है कि हमलोगों का अपना राज्य हुआ है। स्वराज्य = अपना राज्य। स्वराज्य में सुराज लावें। कांग्रेस = बड़ी सभा। कांग्रेस के ऊपर भार है कि इसको किस तरह चलावे। लोग कसूर और पाप न करें। कसूर = जिसका दण्ड राजा दे। पाप = जिसका दण्ड ईश्वर दे। *पाँचों पापों की जो व्याख्या हुई, वह कसूर और पाप दोनों हैं।* कसूर और पाप कैसे छूटेगा? कानून से जेल देते हैं। जेल देते-देते भी यह नहीं छूटता है। कानून भी है और पाप-कसूर भी होते रहते हैं। इसके लिए मैं कहूँगा कि *ईश्वर का भजन करो। नेक-नीयत से रहो। सद्ज्ञान की शिक्षा हो, सदाचार-पालन का प्रचार हो। इस लोक और परलोक - दोनों की इससे सँभाल होगी, उन्नति होगी। घूस, झूठ को हटाइए, स्वराज्य में सुराज आएगा।*
यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत ग्राम पुनामा श्री रामकृष्ण सिंहजी के आवास पर दिनांक 11.4.1654 ई० को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
*श्री सद्गुरु महाराज की जय*