*।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।* *महर्षि मेँहीँ अमृत-कलश, 1.30 : संतों का संग दुर्लभ है* *(साभार – सत्संग-सुधा सागर, 30)* *बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि। महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर॥* प्यारे धर्मप्रेमी महाशयो! *हमलोग सत्संग, संतों की वाणी के सहारे किया करते हैं।* हमारे गुरु महाराज यही बतलाए हैं। *संत संसर्ग त्रैवर्ग पर परम पद प्राप्य नि:प्राप्य गति त्वयि प्रसन्ने।* संतों के संग का नाम सत्संग है। संतों का संग दुर्लभ है, पहचान दुर्लभ है। संत की पहचान होना साधारण प्राणी से असभव है। संत बड़े ऊँचे होते हैं। त्रयवर्ग पर परमपद तीनों पदों से ऊपर पहुँचे हुए; स्थूल, सूक्ष्म, कारण मण्डलों से ऊपर उठे हुए। विद्वान अर्थ, धर्म, काम; इन तीनों से परे को भी त्रयवर्ग कहते हैं। उनको धन चाहिए ऐसा नहीं। उनको धर्म-शिक्षा की कमी नहीं रहती। इहलोक, परलोक कामना से रहित होते हैं। स्थूल, सूक्ष्म, कारण से जो ऊपर होंगे वे अर्थ, धर्म, काम में क्यों हँसेंगे ? अथवा यह कि जो – *अमित बोध अनीह मित भोगी। सत्य सार कवि कोविद योगी।।* संसार में रहकर कुछ-न-कुछ लिया करते ही हैं, मितभोगी होते हैं। *विषयासक्त नहीं होते, स्वल्पभोगी होते हैं।* बिना कुछ लिए संसार में कोई नहीं रह सकते। इसलिए वे थोड़ा लेते हैं। किंतु संसार का बड़ा उपकार करते हैं। संत लिखने-पढ़ने जाने या नहीं जाने; पंडित वे ही नहीं होते, जो खूब पढ़े-लिखे हो; बिना पढ़े-लिखे भी पण्डित होते हैं। पहले लिखना नहीं था, केवल श्रवण-ज्ञान था, सुनते थे। कबीर साहब के लिए लोग कहते हैं कि वे बहुश्रुत थे। किंतु वे कहते हैं - *मैं मरजीवा समुंद का, डुबकी मारी एक। मुट्ठी लाया ज्ञान का, जामें वस्तु अनेक।।* इस प्रकार शरीर में डुबकी लगाने से ये ज्ञानी हुए। बहुश्रुत होने से, अंतर में गोता लगाने से ज्ञानी होते हैं। कोई पढ़े भी, सुने भी, अंतर में गोता भी लगाए। तीनों तरह तथा एक तरह भी; जैसे भगवान बुद्ध। *उनके गुरु अवश्य थे, किंतु उनको उस ज्ञान से तृप्ति नहीं हुई। वे कहते हैं - मैं अपने-आप सीखकर अपना गुरु किसे बताऊँ? पूर्ण योगी वही हैं, जो पूर्ण योग द्वारा पद प्राप्त करते हैं।* तो संत बहुत बोध रखते हैं, अमित बोध। इतने बड़े को साधारण लोग पहचान जाय, कैसे संभव है? कल्याण के एक लेख में आया था - *मैं साधु, महात्मा, ज्ञानी आदि भले कहूँगा; किंतु संत नहीं कह सकता।* संत उसे कह सकते हैं, जिनके लिए यह उपनिषद-वाक्य सार्थक हो चुका हो - *भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।* अर्थ - परे से परे को (परमात्मा को) देखने पर हृदय की ग्रन्थि खुल जाती है, सभी संशय छिन्नभिन्न हो जाते हैं और सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं। तुलसी साहब - *जो कोई कहै साधु को चीन्हा। तुलसी हाथ कान पर दीन्हा।।* इतने बड़े को कौन पहचाने? बरेली स्टेशन के बाद के एक स्टेशन पर एक सज्जन का गाड़ी पर चढ़ना - स्थितप्रज्ञ का लक्षण कहाँ? पूछने से संत की पहचान हो तब सत्संग करे, तो संतों की पहचान असंभव है। फिर सत्संग कैसे हो, तो गुरु महाराज ने कहा - *संतों की वाणी को पढ़ो, यही सत्संग होगा। सत्संग का आधार संत है। बिना संत के सत्संग हो नहीं सकता।* सत्संग भगवान का निज अंग है। *संसार दूर हो जाय, इसके लिए सत्संग है।* क्या संसार छोड़ने योग्य है? देखो, यह सबको मानना पड़ेगा कि यह शरीर माता के पेट में था। लोगों को याद तो नहीं, किंतु यह कहते हैं कि सिर नीचे होता है और पैर ऊपर। माता के पेट में रहना ऊपर लटका हुआ कितना दु:ख होता होगा? अभी कोई वैसे लटका दे, तब देखिए क्या दुःख है? समय पूरा हुआ और निकले, तो क्रन्दन पसार दिया। जनमते समय बच्चा रोवे नहीं, तो लोग समझेंगे मरा हुआ है। *रोना दुःख की पहचान है। इससे जाना जाता है, उसको दुःख अवश्य हुआ होगा।* मुँह से कुछ बात नहीं कर सकते कि भूख लगी है या कुछ रोग। मलमूत्र त्याग हो, उसी पर पड़े रहना। अपने से हिल-डुल नहीं सकता। सोने का झूला हो, मखमल का पलंग हो, कोई बच्चा उसपर पड़ा हुआ हो तो भी उसे क्या सुख? फिर कुछ बढ़े तब क्या हुआ ? जो मुँह में नहीं देने का वही दिया, जो नहीं छूने का वह भी छुआ। फिर बढ़े, कुछ पढ़े-लिखे नहीं, तो उसका भी भारी दु:ख। पढ़ने पर घर-गृहस्थी में गए, पारिवारिक झंझट। फिर दैहिक, दैविक, भौतिक ताप से कौन बच सकता। *श्रीराम भी रोए।* इससे कौन बच सकता है? ‘काम’ आया कुकर्म में चले गए, लोगों की नजर से गिर गए। अपने मन में भारी ग्लानि हुई। ‘क्रोध आया हृदय जल गया, अंधे हो गए, क्या करें, नहीं करें, कुछ सूझता नहीं। ‘लोभ आया, जो नहीं लेने का वह ले लिया, चोरी कर ली, राजा से दंडित हुए; इसी प्रकार सब विकारों को जानिए, तो क्या इस प्रकार संसार में रहना पसंद करते हैं? कभी नहीं। इसीलिए संत कहते हैं - *सत्संग करो।* *प्रबल भव जनित त्रयव्याधि भेषज भक्ति, भक्त भैषज्यमद्वैत दरसी।।* औषध भक्ति है और वैद्य भक्त हैं। यह औषधि लेनी आवश्यक है। इसलिए *सत्संग करना आवश्यक है।* भक्ति करो तो किसकी? परमेश्वर की-ईश्वर की भक्ति समझने के लिए पहले ईश्वर को समझना होगा। *ईश्वर नहीं है, सुनकर रुलाई आती है।* आधार को छोड़कर कैसे रहोगे? आधार को मत छोड़ो। जो आधार तुमको अच्छा बनावेगा, उसको छोड़कर तुम कैसे रहोगे? वह ईश्वर हई है। *व्यापक व्याप्य अखण्ड अनंता। अखिल अमोघ शक्ति भगवंता।।* यह ईश्वर है, जो सबमें भरा हुआ है ही। ईश्वर है, अंतरहित है, नहीं रहेगा सो नहीं, रहेगा ही। हई है, कहीं से आया नहीं है। जब कुछ नहीं था, तब भी वह था, रहेगा ही। सारी प्रकृति को भर कर कितना विशेष है, कहा नहीं जा सकता। इसका नहीं होना असंभव है। यदि कहो, नहीं है। तो प्रश्न उदय होगा, सारे सांतों के पार में क्या होगा? अनंत कहना ही पड़ेगा। यदि कहो अनंत के पार में क्या है, तो तुम्हारा प्रश्न ही गलत है। अनंत का अंत ही नहीं होगा। उसके पार में कैसे क्या होगा? *वह ईश्वर नहीं है, ऐसा कहने से गुंजाइश नहीं है।* वह स्थूल इन्द्रियों से प्राप्त नहीं हो सकता। उपनिषद् में सुना - मन से जिसका मनन नहीं हो सकता, बुद्धि भी नहीं जान सकती। लोग समझते हैं मन, बुद्धि आदि इन्द्रिय नहीं रहेगी तो हम कैसे देखेंगे, समझेंगे। आप बहुत शक्तिशाली हैं, *जैसे एक-एक इन्द्रिय का एक-एक विषय है, उसी प्रकार आपके निज का विषय परमात्मा है।* इन्द्रियों का संग छूटे शरीर-रहित होकर, अकेले होकर रहे तो आप महान हैं, तब परमात्मा को प्राप्त करेंगे। *इन्द्रियों के संग से आपकी शक्ति घट जाती है।* जैसे रोशनी पर आवरण पड़ने से उसका तेज कम हो जाता है। जैसे आँख से जो देखते हो, उसे ही रूप कहते हैं; उसी प्रकार जो चेतन-आत्मा से पकड़ा जाय, वह परमात्मा है। जन्मांध व्यक्ति चीजों के रूप को नहीं देख सकते। आँखवाले पहचानते हैं। यह बात दूसरी है। परमात्मा सबका आधार है, इसी की भक्ति करो। *जो विषयों में फँसते हैं, अपना दुर्नाम करवाते हैं।* कभी-कभी राजा से दंडित होते हैं और अंत में नरक भी होता है, तो इस प्रकार विषय सुख से होता है। यदि परमात्मा की भक्ति करो, तब उस परमात्मा को प्राप्त कर देखो कि वह सुख कैसा है? जिसकी इन्द्रियाँ शांत नहीं, जिसका मन अशांत है, वह आत्मज्ञान द्वारा परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता। *पापात्मा को ईश्वर की भक्ति में दिल नहीं लगता।* *सेख सबूरी बाहरा, क्या हज कावे जाय। जाका दिल साबत नहीं, ताको कहाँ खुदाय।।* रूहे पाक से पहचान सकते हो, हवस से नहीं। पवित्र आत्मा से ईश्वर को पहचानो। *शरीरयुक्त इन्द्रियों के संग के कारण जो मलिनता है, उससे जबतक ऊपर नहीं उठेंगे, तबतक ईश्वर को पहचान नहीं सकते।* ईश्वर की भक्ति कैसे हो, इसपर कल्ह कहूँगा। *देहि सत्संग निज अंग श्रीरंग, भवभंग कारण सरन सोकहारी।* मुझे सत्संग दीजिए, वह आपका अपना शरीर है। जन्म को नाश करने का कारण और शरणागत के शोक को हरनेवाला है। यह प्रवचन सहरसा जिला विशेषाधिवेशन ग्राम-खापुर (अब जिला - मधेपुरा) में दिनांक 8.11.1952 ईo को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था। *श्री सद्गुरु महाराज की जय*
कामेंट्स
Satyam Singh kharela charkhar Jan 24, 2021
Jay shiri ram
Prakash Singh Rathore Jan 25, 2021
@रामआसरेसिंह रोज का सत्संग सुन ने के लिए यहां क्लिक कीजिए..................... https://chat.whatsapp.com/KofJ4ysVtl03zKkS6LpDdL
Prakash Singh Rathore Jan 25, 2021
@रामआसरेसिंह 🙏🙏 *।। जय श्री कृष्णा ।।*🙏🙏 🌹 *जन्माष्टमी के शुभ अवसर से* 🌹 प्रभु जी आप सभी को निवेदन है कि आप भी भगवद गीता का लाभ उठायें *मेरा आप से यही कहना है* की आप भी ये ग्रुप join कर लीजिए *Whatsapp के लिए* 👇👇👇👇👇👇👇 https://chat.whatsapp.com/IW1kuloS55s7yslN4ohwiN *Teligram के लिए* 👇👇👇👇👇👇 https://telegram.me/DailyBhagavadGita