*।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।* *महर्षि मेँहीँ अमृत-कलश, 1.31 : सूर संग्राम को देख भागै नहीं* *(साभार – सत्संग-सुधा सागर, 31)* *बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि। महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।।* प्यारे भाइयो ! आपलोगों ने संतों के वचनों का पाठ सुना। आपलोगों को सुनने में प्रिय लगे, इसलिए कुछ लय और बाजा बजवाया। लय सुनकर जो अच्छा लगा हो तथा अर्थ समझ-समझकर गोता लगाते हों तो बहुत अच्छा। यदि लय-बाजा अच्छा नहीं लगता हो, केवल अर्थ को समझ-समझकर गोता लगाते हो, तो यह भी अच्छा है, किंतु *यदि केवल लय में आनंद हो तो वह अच्छा नहीं है।* *संतों की माला मेरे हृदय में है।* माला में एक सुमेरु होता है। सुमेरु को टपते नहीं हैं। सुमेरु से लौटकर फिर गिनते-गिनते सुमेरु तक जाते हैं। कोई भी सुमेरु को टपते नहीं हैं। मेरी माला संतों की माला है। *सुमेरु में संत कबीर साहब हैं।* इसलिए संत कबीर साहब का वचन मेरे पाठ में सबसे प्रथम आता है। इनको सबसे प्रथम धक्का लगा और धक्का को सह गए। जिस समय सामाजिक और धार्मिक समस्या ऐसी थी कि उसके सामने ठठना मुश्किल था, कबीर साहब ने इन धक्कों को सहा। चूल्हे पर देकर देग में उबाला गया, बाँधकर हाथी के पैरों तले दबवाया गया; सिकंदर लोदी का समय था, उन्होंने बहुत जबरदस्त धक्का दिया। किंतु ये सह गए और अपनी जो उक्ति थी कही, जो उक्ति उपनिषदों में है। नानक, दादू, तुलसी आदि संत कोई कम नहीं थे, किंतु पहले इन्हीं को सब धक्का सहना पड़ा। वे कहते हैं - *सबलोग अंधकार में पड़े हुए हैं।* आपलोग कहेंगे - हमलोग चन्द्र, सूर्य, तारे आदि के प्रकाश से प्रकाशित हैं; अनेक प्रकार की रोशनियों को जलाकर प्रकाश करते हैं, फिर अंधकार में कैसे? कहेंगे विद्या नहीं रहने के कारण। किंतु इससे भी प्रकाश नहीं होता। *इतना पढ़ गए कि पढ़ने का अंत ही कर डाले, किंतु आँख बंदकर देखो तो अंधकार ही मिलेगा।* छान्दोग्योपनिषद् में नारद की कथा है कि - नारद ऋषि सनत्कुमार अर्थात् स्कन्द के यहाँ जाकर कहने लगे - ‘मुझे आत्मज्ञान बतलाओ।‘ तब सनत्कुमार बोले - ‘पहले बतलाओ, तुमने क्या सीखा है, फिर मैं बतलाता हूँ।' इसपर नारद ने कहा - ‘मैंने इतिहास-पुराणरूपी पाँचवें वेद सहित ऋग्वेद प्रभृति समग्रवेद, व्याकरण, गणित, तर्कशास्त्र, कालशास्त्र, नीतिशास्त्र, सभी वेदांग, धर्मशास्त्र, भूतविद्या, क्षेत्रविद्या, नक्षत्रविद्या और सर्पदेवजनविद्या प्रभृति सब कुछ पढ़ा है; परंतु जब इससे आत्मज्ञान नहीं हुआ, तब अब तुम्हारे यहाँ आया हूँ।' इसको सुनकर सनत्कुमार ने यह उत्तर दिया - *तूने जो कुछ सीखा-पढ़ा है, वह तो सारा नाम-रूपात्मक है, सच्चा ब्रह्म इस नाम-रूपात्मक ब्रह्म से बहुत आगे है।* *विद्या का प्रकाश, बाहर का प्रकाश रहते हुए भी आत्मज्ञान नहीं होता है।* अपरोक्ष ज्ञान-अनुभव ज्ञान नहीं हो सकता। अनुभव को लोग विचार में ले लेते हैं, किंतु नहीं। *समाधि द्वारा अनुभव-ज्ञान प्राप्त होता है।* संत कबीर साहब कहते हैं - ‘अपने घट दियना बारू रे।‘ चिराग है, बत्ती है। आग लगा दीजिए, फुन-फुनाकर जलता है, फिर बुत जाता है। यह प्रकाश क्या है? उसी प्रकार कुछ भजन करते हैं, ईश्वर की कृपा से कुछ देखने में आता है, फिर बुत जाता है। तेल नहीं है इसलिए। संत कबीर साहब कहते हैं - *नाम का तेल दो।* अर्थात् प्रकाश में पहुँचकर यदि शब्द को पकड़ो तो वह स्थिर प्रकाश मिलेगा, जो बुतेगा नहीं। *उसमें सुरत की बाती दो।* ब्रह्म अग्नि से जलाओ। ब्रह्मज्योति कहाँ है? संत सूरदासजी के वचन में सुना - *नैन नासिका अग्र है, तहाँ ब्रह्म को वास। अविनाशी विनसै नहीं, हो सहज ज्योति प्रकास।।* इस शरीर-इन्द्रिय से अपने की पहचान नहीं होती है, फिर परमात्मा को कैसे पहचानेगा? *आपुन ही कूँ खोज, मिलै जब राम सनेही।। - सहजोबाई* देह के अतिरिक्त ‘मैं’ कुछ और हूँ, देह नहीं हूँ। देह में हूँ, किंतु देह में अंधकार है। जैसे घर में कुछ वस्तु है, किंतु घर में अंधकार है, फिर क्या देख सकेंगे? इसी प्रकार देह के अंदर अंधकार है, क्या देखेंगे? इसलिए संत कबीर साहब अपने में प्रकाश करने के लिए कहते हैं। *नाम का तेल और सुरत की बत्ती के लिए कहते हैं।* सुरत चेतन को कहते हैं। (प्रोo विश्वानंदजी का प्रश्न - ‘चेतन-आत्मा और चेतन-धार में क्या अंतर है?' परमाराध्य महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज का उत्तर - जैसे सूर्य और सूर्य की किरण।‘) नाम में सुरत लगाकर रखिए, चिराग जलती रहेगी। लोग कहेंगे - चिराग, चाँद, सूर्य देखते ही हैं, इससे क्या होता है? क्या होगा? जिस समय सुरत सिमटती है, स्थूल विषय में फैलाव नहीं रहता। इन्द्रियों में फैलाव तब होता है, जब चेतन-धार इन्द्रियों में रहती है। *इन्द्रियों में रहने पर ही पाप-पुण्य कर्म करते हैं और स्वर्ग-नरक भोगते हैं। इनसे निवृत्ति तभी होगी, जब कोई इन्द्रियों से अपनी चेतन-धारा को सिमट ले।* इसलिए संत कबीर साहब कहते हैं - अपने अंदर प्रकाश करो और जगमग ज्योति को निहारो। देखने से उसमें तल्लीनता आ जाएगी, पापों से छूट जाएँगे। बंगला पद्य में कल्ह सुना - ‘देखे आँखी कोनो मते कीनी ना।' फिर संत कबीर साहब ने कहा - *अपने काम को सँभालो।* अपना काम बनाना यही है। हम सबसे ऊँचे रहें, लोग नीचे रहें, अपना काम बनाना नहीं है। एक मुखिया दूसरे मुखिया को दबाना चाहते हैं। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को दबाना चाहते हैं। यह अपना काम बनाना नहीं है। *सबसे मिलकर रहो, तभी आनंद से रहोगे। भजन करो। मन-इन्द्रियों से युद्ध करो।* *सूर संग्राम को देख भागै नहीं, देख भागै सोई सूर नाहीं। काम व क्रोध मद लोभ से जूझना, मरा घमसान तहँ खेत माहीं।। साँच औ शील संतोष शाही भये, नाम शमशेर तहँ खूब बाजे। कहै कबीर कोई जूझिहैं शूरमा, कायराँ पीठ दै तुरत भाजै।।* सच्चाई, शीलता, संतोष ध्वजा है। जो सूरमा है, वह लड़ाई में लड़ेगा। कायर भागेगा, उसका काम नहीं बनेगा। उन्होंने दिलाशा दिया - *करता की गति अगम है, चल गुरु की उनमान। धीरे धीरे पाँव दे, पहुँचोगे परमान।।* काम बहुत बड़ा है। मन-इन्द्रियों को समेटना, अधोगति से ऊर्ध्वगति करना कठिन है, किंतु कठिन कहकर छोड़ने से काम चलने का नहीं। एमoएo तक पढ़ना बड़ा मुश्किल है। *बच्चे से गुरुजी की मार कौन खाए, फटकार को कौन सहे, कॉलेज में कौन सड़े; यह सोचकर नहीं पढ़ने से कोई विद्वान नहीं हो सकता, उसको पद-प्रतिष्ठा नहीं मिल सकती।* जो पढ़ते हैं - गुरुजी की मार खाते हैं, फटकार सहते हैं, कॉलेज जाते हैं; वे विद्वान होते हैं, उनको पद-प्रतिष्ठा मिलती है। उसी प्रकार यदि तुम पढ़ो, अध्यात्म-ज्ञान सीखो, तो उतने ही बड़े होओगे, जितने बड़े संत कबीर थे। *भगवान कृष्ण ने कहा - भक्त तो मुझसे भी बड़े हैं, इतने ऊँचे दर्जे में हैं कि जिनका दर्शन मैं नहीं कर पाता।* ऊँचा पद पर आसीन होना कोई साधारण काम नहीं। किंतु थोड़ा-थोड़ा करते-करते सरल हो जाएगा। भगवान बुद्ध का वचन - *पानी की बूंदों से घड़ा को भरते-भरते वह भर जाता है, उसी प्रकार थोड़ा-थोड़ा ध्यान करते-करते पूर्णता को प्राप्त करोगे। यही अपना काम है।* अपना काम बनाना क्या है, इसपर कहा। संसार में जो कोई प्रतिष्ठावान होकर हैं, वही अच्छा है। प्रतिष्ठाहीन किस काम का? संसार में प्रतिष्ठा का मोल जितना है, धन का उतना नहीं। *झूठे को, विषयी को प्रतिष्ठा नहीं मिलती। जो झूठे नहीं, विषयी नहीं, उनको प्रतिष्ठा मिलती है।* छपरा के पास एक संत थे। वे बोले थे - ‘दिन में रात होगी, इतने आदमी मरेंगे कि आदमी को आदमी नहीं फेकेंगे। पहली बात सूर्यग्रहण हुआ। पूरा सूर्य डूब जाने पर अंधकार हो गया। जैसे संध्या के समय चिड़िया बोलती है, चिड़िया बोलने लगी। दूसरी बात प्लेग की बीमारी हुई, जिसमें इतने लोग मरे कि लोग नहीं फेंक सकते। नगरपालिकावाले गाड़ी पर भर-भरकर उन लाशों को फेंकते थे। तीसरी बात यह देश स्वतंत्र हो जाने के कारण आजकल संत का राज्य हो गया और संत-राज्य होगा। उनकी तीनों बातें मिल गई। पहली बात हुई सूर्यग्रहण होना, अंधकार होना, चिड़िया बोलना। दूसरी बात प्लेग की इतनी बीमारी हो गई कि लोगों को फेंकना पड़ा। आजकल संत-राज्य हो गया। डाकघर के टिकटों पर संतों का छाप चल रहा है। *दादू जानै न कोई, संतन की गति गोई।।टेक।। अविगत अंत अंत अंतर पट, अगम अगाध अगोई। सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा, अगुन सगुन नहिं दोई।। अंड न पिंड खण्ड ब्रह्माण्डा, सुरत सिंध समोई। निराकार आकार न जोती, पूरन ब्रह्म न होई।। इनके पार सार सोइ पइहैं, मन तन गति पति खोई। दादू दीन लीन चरनन चित, मैं उनकी सरनोई।।* अर्थ – अ = नहीं। गोई = कहना। अगोई = अनिर्वचनीय। *अंतर शून्यं बाहर शून्यं, त्रिभुवन शून्यं शून्य। तीनों शून्य को जो कोई जाने, ताको पाप न पुण्यं।।* 1. स्थूलाकाश = अंधकार का आकाश। 2. सूक्ष्माकाश = प्रकाशाकाश। 3. कारण का आकाश = शब्दाकाश। दादू दयालजी का वचन है - ‘सुन्नी सुन्न सुन्न के पारा।' अर्थात् शून्य, महाशून्य और भंवर गुफा के परे जो जाता है, उसको पाप-पुण्य नहीं लगता। त्रैगुण रहितता का गुण है, त्रैगुण का गुण नहीं है। दिव्यगुण-सहित और त्रैगुण-रहित होने से ईश्वर सगुण हैं, किंतु इस प्रकार केवल सगुण कहने से साधारण लोग ओरझा जाएँगे। इसलिए संतों ने सगुण-निर्गुण तथा उसके परे कहकर समझाया। त्रैगुण-सहित सगुण, त्रैगुण-रहित निर्गुण तथा इन दोनों के परे भी। सगुण जड़, निर्गुण चेतन तथा इन दोनों के परे जो है, वही परमात्मा है। बाहर इन्द्रियों से जो हम जानते हैं स्थूल सगुण है। अंतर में प्रकाश तथा अनहद शब्द सूक्ष्म सगुण है तथा सारशब्द सार्थक निर्गुण है। सारशब्द की उपासना निर्गुण उपासना है। इसकी उपासना करनेवाले इसके पार हो जाते हैं। वे निर्गुण-सगुण के परे चले जाते हैं - ‘पूरण ब्रह्म न होई।‘ जो प्रकृति-मंडल में व्यापक है, वही पूरण ब्रह्म है। प्रकृति व्याप्य और वह व्यापक है। किंतु *प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी। ब्रह्मनिरीह बिरज अविनाशी।।* जो प्रकृति के पार में है, उसे पूरणब्रह्म नहीं कह सकते। किनके पार? यानी *पिण्ड-ब्रह्माण्ड के परे, सगुण-अगुण के परे और सुन्नी सुन्न सुन्न के परे जो है, वही परब्रह्म परमात्मा है।* यह प्रवचन सहस्सा जिला विशेषाधिवेशन ग्राम-खापुर (अब जिला - मधेपुरा) में दिनांक 6.11.1952 ईo को प्रातःकालीन सत्संग में हुआ था। *श्री सद्गुरु महाराज की जय*