जय श्री राधे कृष्णा 🙏
#प्रेम तत्त्व अतिसूक्ष्मस्वरूप है#
***श्रीराधिकारानी ने एक दिन श्रीकृष्ण का नाम सुना, नाम सुनते ही चित्त व्याकुल हो गया, अपनी अन्तरतम सखी ललिता से उन्होंने कहा:- कृष्ण नाम जबतें श्रवन सुन्यो री आली। भूली री भवन, हौं तौं बावरी भई टी।। यह कहते ही वंशी ध्वनि उनके कान मे पड़ी अब व्याकुलता और बढ़ गयी तो सखी चित्रा जी ने एक चित्र दिखलाते हुये कहा:- “शिशिरय द्दशौ द्दष्ट्वा दिव्यं किशोरमिमं पुर: ! इस दिव्य किशोर को देखकर अपने नेत्र शीतल कर लो। चित्र देखकर व्याकुलता चरमसीमा मे पहुँच गयी, तो ललिताजी ने कहा :- अपनी व्याकुलता का कारण बताओ , हमसे ना छिपाओ! श्रीराधिकारानी ने कहा:- “सखी! राधा की यह हृदय वेदना दु:साध्य है जिसके निवारणार्थ की हुई चिकित्सा भी कुत्सा(निन्दा )मे परिणत हो जाती है।” ललिता जी ने कहा :- अन्तत: रोग क्या है? श्रीराधा:-कहते लज्जा आती है, मेरा हृदय एक साथ ३-३ पुरूषों मे अनुरक्त हो गया है, अब तो मृत्यु ही मुझे जुगुत्सा से छुड़ा सकती है।’ ललिता:- वे तीनों भाग्यवान् है कौन? श्रीराधा:- मै उन तीनों सें किसी से मिली नही, किसी को देखा नही, एक का “ कृष्ण “ नाम श्रवण मे पड़ा और व्याकुल हो गयी दूसरे किसी ने मधुर वंशी बजायी , उसे सुनकर मेरा चित्त मेरे वश मे नही रहा, और अब यह चित्रा सखी किसी का चित्र बना लायी है, इस पर भी मै मोहित हो गयी हुँ । ललिता:-“ तब यह कहो कि हमारे नन्दनन्दन श्यामसुन्दर वंशीवादक श्रीकृष्ण से तुम्हारी प्रीति हो गई है, तुम बहुत भोली हो ,यह तीनों तीन नही है, यह जिसका चित्र है , वही वंशी बजाता है, व उसी का नाम कृष्ण है। “”यह सूक्ष्मतर रूप है प्रेम का”” ६.अनुभवरूपम्:- भव का अर्थ बदलने वाला जो बार-बार बदले वह है भव! “भवतीति भव:, और प्रेम का स्वरूप है अनुभव। प्रेम का स्वभाव है दूसरे को निकट लाना, देर को तत्काल करना, पराये को अपना बनाना। प्रेम अनुभवरूप है इसका यह अर्थ है कि प्रेम का रसास्वाद उन्हें ही प्राप्त होता है,जिनके हृदय मे भक्ति आती है(जिसके द्वारा भगवदाकार वृत्ति की जाय उसे भक्ति कहते है) प्रेम का रसास्वाद उन्हें ही प्राप्त होता है जिनका “अविनाशी रसात्मक -चेतन(ईश्वर ) “ मे अनुराग है, स्नेह है। ललिताजी ने श्रीराधिकारानी से पूछा:-स्वामिनी श्याम से आपका क्या सम्बन्ध है? श्रीराधा:-“जो तुम्हें अच्छा लगे वह मान लो” प्रेम मे सम्बन्ध की रूपरेखा कैसी? सम्बन्ध प्रेम का साधन है, साध्य नही। ललिता :- “आप प्रियतमा है और वे प्रियतम है” श्रीराधा:- सखी! तुम कुछ भी नही जानती , तुम केवल ऊपर ऊपर की बात जानती हो , तथ्य यह है कि “तात-मात, गुरू-सखा तुम सब विधि हित मेरे। मोहि तोहि नाते अनेक, मानिये जो भावै।।”” सखी ! न वे प्रियतम है, न मै प्रियतमा हुँ , हम दोनो मे प्रियतम -प्रियतमा का भेद नही है, मिलन की तीव्राकाँक्षा जागी और उसने दोनो को बलपूर्वक पीसकर एक कर दिया , अब मन ही दो नही रहा , पार्थक्य तो मन के कारण होता है। यदि संसार मे दो मन एक हो जाये तो प्रबल हो जाते है उस समय १ + १ = २ नही होता , तब १+१=११ होता है गुरू शिष्य का मन एक होकर ईश्वर को खींच लेता है, प्रेम के रस से मिलकर दोनो मन नरम हो जाते है, पिघल जाते है और मिलकर एक हो जाते है।”” श्रीकृष्ण मे “श्री” जो है वही है श्रीराधा, कृष्ण का आधार है श्री राधिकारानी। श्रीराधाकृष्ण परस्पर भिन्न नही है वे एक ही हैं।
राधे राधे