*।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।*
*महर्षि मेँहीँ अमृत-कलश, 1.115 : परमात्मा के लिए ईश्वर शब्द का प्रयोग*
*(साभार – सत्संग-सुधा सागर, 115)*
*बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि। महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।।*
प्यारे लोगो!
इस सत्संग के द्वारा ईश्वर-भक्ति करने के लिए सदा से उपदेश होता हुआ चला आया है। ईश्वर-भक्ति करने के लिए सबसे पहले ईश्वर की स्थिति को जानना चाहिए। फिर उसके स्वरूप को जानना चाहिए। *ईश्वर की स्थिति और उसके स्वरूप को पहले जानना चाहिए।*
‘ईश्वर’ शब्द को लोग बहुत जगह प्रयोग करते हैं। जैसे नर + ईश्वर कहने से राजा का ज्ञान होता है। देवेश और देवेश्वर में भी ईश, ईश्वर लगा हुआ है। यहाँ ईश्वर से बढ़कर कोई नहीं है। जैसे नरेश्वर से बढ़कर देवेश्वर है, तो देवेश्वर के ऊपर देव ब्रह्मा है। उनसे भी बढ़कर विष्णु हैं। देवियों के लिए भी ईश्वर शब्द प्रयोग हुआ है, किंतु *यहाँ जिस ईश्वर के लिए कहा जाता है, उससे बढ़कर कोई नहीं।*
परमात्मा के लिए ईश्वर शब्द का प्रयोग है। *यहाँ एक ईश्वर की मान्यता है।* अनेक शरीरों की अनेक जीवात्माओं को अनेक मानने से अनीश्वरवाद होता है, न कि ईश्वरवाद। ईश्वर-ज्ञान के लिए क्या वेद, उपनिषद्, संतवाणी सबमें है। *जो इन्द्रियों के ज्ञान से बाहर है, जो आदि-अंत-रहित है, जिसकी सीमा कहीं नहीं है, जो अनादि, अनंत, असीम है, जिसकी शक्ति अपरिमित है, जो इन्द्रियों के ज्ञान में नहीं, आत्मा के ज्ञान में आने योग्य है, वह परमात्मा है। यह बात कहते-कहते मुझे 20 वर्ष हो गए, किंतु अफसोस है कि कुछ लोग ही इसे समझ पाए हैं।*
शरीर-इन्द्रियों से जानने और मिलने योग्य ईश्वर मानोगे, तो उसमें ऐसी-ऐसी बात देखने में आवेगी, जिसे देखने से ईश्वर मानने के योग्य वह नहीं रह जाता। उसको ईश्वर मानना अन्धी श्रद्धा होगी। जो मन-इन्द्रियों से नहीं जानो, उसको किससे जानो? तो कहा - चेतन आत्मा से इन्द्रियों के पृथक-पृथक होने के कारण उनका पृथक-पृथक ज्ञान होता है। सब विषयों को एक ही इन्द्रिय से नहीं जान सकते। आँख से रूप देखते हैं, कान से शब्द सुनते हैं, नासिका से गंध ग्रहण करते हैं, जिह्वा से रस लेते हैं और चमड़े से स्पर्श का ज्ञान होता है। इन्द्रियों के पृथक-पृथक होने के कारण उनका पृथक-पृथक काम है, किंतु तुम्हारा निज काम क्या है? *तुम्हारा निज काम परमात्मा की पहचान है और अपनी पहचान है।* जो मानता है कि आत्मा बिना शरीर के नहीं रह सकती, सूक्ष्म शरीर में रहती है, उसका यह ज्ञान अधूरा है। स्थूल शरीर के बाद सूक्ष्म शरीर, सूक्ष्म के बाद कारण शरीर, कारण के बाद महाकारण शरीर, फिर कैवल्य शरीर है। *उस चेतन आत्मा का निज ज्ञान परमात्मा की पहचान है।* इसके अतिरिक्त परमात्मा को किसी से पहचाना नहीं जा सकता। एक असीम पदार्थ को नहीं मानो, तो प्रश्न होगा कि सब ससीम पदार्थों के बाद में क्या होगा? बिना असीम कहे प्रश्न सिर पर से नहीं उतर सकता। इसलिए *एक असीम तत्त्व को मानना ही पड़ेगा।* यदि कहो कि यह कल्पित है तो अकल्पित क्या है? ईश्वर को कल्पित कहनेवाले का ज्ञान मिथ्या है। कल्पित तो वह है, जिसकी स्थिति नहीं हो और मन से कुछ गढ़ लिया गया हो, किंतु एक अनादि-अनंत तत्त्व अवश्य है। उसकी स्थिति अवश्य है, वह कल्पित कैसा? जो असीम है, जिसकी शक्ति अपरिमित है, उसको तुम अपनी परिमित बुद्धि से कैसे माप सकते हो? कोई यह नहीं कह सकता कि बुद्धि अपरिमित है।
आजकल विज्ञान का बहुत बड़ा विस्तार हुआ है, किंतु उनसे पूछो तो वे कहते हैं - अभी तो समुद्र के किनारे का एक बालूकण ही दीख पड़ा है। बुद्धि अभी कितनी विकसित होगी, ठिकाना नहीं। किंतु बुद्धि अपरिमित नहीं हो सकती। परिमित बुद्धि में अपरिमित को अँटा नहीं सकते। आज की बुद्धि जितनी दूर तक गई, उतनी ही रहेगी या उससे भी अधिक बढ़ेगी? यदि कोई योगेश्वर है तो बता दे कि बुद्धि कितनी बढ़ेगी? आजकल हमारे देश में अणु बम की खोज हो रही है। दूसरे देश के लोग इसको जानते हैं। यदि तुम जानते हो तो बता दो, तो समझूँ कि इतना ज्ञान तुमको है। किंतु इतना भी ज्ञान नहीं है। दूसरे देश के लोगों को बम बनाते देखकर गौरव करते हो कि अणु बम हमने बनाया। तारे, चाँद, सूर्य सभी हमने बनाए? दूसरे देश के लोगों से हम डरते हैं कि कहीं बम गिरा दे तो हमारा सर्वनाश हो जाएगा; और हम गौरव करते हैं कि ये सब हमने बनाये।
वेद में यही ज्ञान दिया गया है कि *इन्द्रियों से परमात्मा को ग्रहण नहीं कर सकते।* कबीर साहब ने कहा है -
*राम निरंजन न्यारा रे। अंजन सकल पसारा रे।। अंजन उतपति वो ऊँकार। अंजन मांड्या सब बिस्तार।। अंजन ब्रह्मा शंकर इन्द। अंजन गोपी संगि गोव्यंद।। अंजन वाणी अंजन वेद। अंजन किया नाना भेद।। अंजन विद्या पाठ पुरान। अंजन फोकट कथहि गियान।। अंजन पाती अंजन देव। अंजन की करै अंजन सेव।। अंजन नाचै अंजन गावै। अंजन भेष अनंत दिखावै।। अंजन कहौं कहाँ लगि केता। दान पुंनि तप तीरथ जेता।। कहै कबीर कोइ विरला जागे, अंजन छाड़ि निरंजन लागै।।*
यह पद कहकर सभी को माया बताया है और वह परमात्मा निरंजन है, निर्मायिक है। गुरु नानकदेवजी ने भी कहा है कि -
*अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न करमा।। जाति अजाति अजोनी संभउ, ना तिसु भाउ न भरमा।।*
अर्थात् *परम प्रभु परमात्मा देखने की शक्ति से परे, असीम, मन और बुद्धि की पहुँच से परे, अजन्मा, कुलविहीन, काल और कर्म से रहित तथा भूल और मनोमय संकल्प से हीन है।*
एक-एक शरीर में एक-एक ईश्वर माननेवाले को कितना भ्रम है, उसका ठिकाना नहीं। *जो परमात्मा सर्वव्यापी है, वह सबके घट-घट में है। उसको पाने का यत्न अपने अंदर करो। अंदर में यत्न करने पर तुम अपने को भी जानोगे और ईश्वर को भी पहचानोगे।*
एक अनादि अनंत स्वरूपी ईश्वर को नहीं मानकर जो एक-एक शरीर में एक-एक ईश्वर को मानता है, वह ईश्वर कैसा? जरा सोचो - यदि एक-एक शरीर में एक-एक ईश्वर है, तो एक ईश्वर दूसरे ईश्वर को थप्पड़ लगाता है, गाली देता है, मार-पीट करता है। एक ईश्वर दूसरे ईश्वर पर मामला-मुकदमा करता है, तीसरा झूठा वकील - ईश्वर झूठा फैसला करता है। क्या यही ईश्वर है? ये सब ईश्वर नहीं हैं। *वास्तव में परम प्रभु परमात्मा एक है, वह स्वरूपतः अनंत है।*
यह प्रवचन कटिहार जिलान्तर्गत श्रीसंतमत सत्संग मंदिर मनिहारी में दिनांक 16.6.1955 ई० को अपराह्नकालीन सत्संग में हुआ था।
*श्री सद्गुरु महाराज की जय*