*।।ॐ श्री सद्गुरवे नमः।।*
*महर्षि मेँहीँ अमृत-कलश, 1.108 : काम करते हुए भी भजन करो*
*(साभार – सत्संग-सुधा सागर, 108)*
*बन्दौं गुरुपद कंज, कृपासिन्धु नररूप हरि। महामोह तमपुंज, जासु वचन रविकर निकर।।*
प्यारे लोगो!
शरीर में जीवात्मा का निवास है, इसीलिए शरीर जीवित मालूम होता है। *शरीर जड़ है अर्थात् ज्ञानहीन पदार्थ है और जीवात्मा-चेतन अर्थात् ज्ञानमय पदार्थ है।* दोनों का संग ऐसा है कि साधारणतः: इसको कोई भिन्न नहीं कर सकता। शरीर में रहने का जीवन थोड़ा है और शरीर छोड़ने के बाद का जीवन अनंत है। क्योंकि *जीवात्मा अविनाशी है। अनंत जीवन बहुत जीवन है*, एक शरीर का जीवन बहुत कम है। अवश्य ही वर्तमान शरीर के बाद के जीवन में स्थूल शरीर अनेक हो सकते हैं - शरीर बहुत हो सकते हैं। उन जन्म-मरणशील जीवन को जोड़ो तो बहुत हैं। इस शरीर से छूटने पर केवल जीवात्मा नहीं रहता। वह तीन जड़ शरीरों के अंदर रहता है। बारम्बार जनमने-मरने में केवल स्थूल शरीर छूटता है और तीन शरीर रह जाते हैं। इन तीनों शरीरों में रहने का जीवन बहुत है। इन्हीं शरीरों में रहते हुए स्वर्गादि परलोक का भोग होता है। वहाँ के भोग के समाप्त होने पर फिर कर्मानुसार किसी के यहाँ जन्म लेता है। लेकिन यह चक्र कबतक चलता रहेगा, कोई ठिकाना नहीं। इतना ठिकाना है कि *जबतक शरीर और संसार से छुटकारा नहीं हो जाय - मुक्ति नहीं प्राप्त कर ले, तबतक लगा रहेगा। सबसे उत्तम जीवन यही है कि किसी शरीर में नहीं रहना।* किसी शरीर में रहना, पुण्य के अनुकूल स्वर्गादि में रहो फिर वहाँ से नीचे गिरो, यह जीवन कोई अच्छा जीवन नहीं है। हमलोग वर्तमान शरीर में हैं, इसमें कितने दिन रहेंगे, ठिकाना नहीं। उस अनंत जीवन के समक्ष यह जीवन अत्यन्त स्वल्प है। लोग दुःख में एक सेकेण्ड के लिए लिए रहना नहीं चाहते। *सुख की ओर दौड़ता हुआ, दुःख से भागता हुआ यह जीव चलता है। किंतु जो सुख यह चाहता है, वह कहीं नहीं मिलता।* साधु-सन्त लोग कहते हैं कि थोड़े-से जीवन के लिए तुम दौड़े-दौड़े फिरते हो और डरते हो कि आज यह काम नहीं किया जाएगा तो यह हानि होगी। डर के मारे ठीक-ठीक नौकरी, वाणिज्य-व्यापार, खेती आदि करते रहते हो। ऐसा नहीं करो तो कोई हर्ज नहीं। बहुत धनी आदमी भी धन को सम्हालने और बढ़ाने में रहता है। धन के सम्हालने और बढ़ाने में भी कष्ट होता है। गरीब आदमी देखता है कि आज खाने के लिए है कल के लिए यत्न नहीं करो तो क्या खाओगे? उससे विशेष जो कृषक हैं, सोचते हैं कि इस साल के लिए खाने को है, आगे वर्ष क्या खाएँगे, इस डर के मारे खेती करते हैं। तो एक शरीर के जीवन के लिए डरते हो और काम करते हो। और इसके लिए नहीं डरते कि इस शरीर के जीवन के बाद का जो जीवन है उससे क्या होगा? चाहिए कि ऐसा काम करो कि शरीर छोड़ने के बाद भी तुम सुखी रहो। इसके लिए क्या करना होगा? *ईश्वर का नाम जपो।* इसी को कबीर साहब ने कहा है –
*निधड़क बैठा नाम बिनु, चेति न करै पुकार। यह तन जल का बुदबुदा, बिनसत नाहीं बार।।*
यदि समझ लो तो फिर आज कल के लिए बहाना नहीं करो कि आज नहीं कल करूँगा। क्योंकि गुरु नानकदेवजी ने कहा है –
*नहँ बालक नहँ यौवने, नहिं बिरधी कछु बंध। वह औसर नहिं जानिये, जब आय पड़े जम फंद।।*
*अनंत जीवन में दुःखी न होओ, इसके लिए ईश्वर का नाम-भजन करो। आजकल करते हुए समय बर्बाद मत करो।* बल्कि –
*काल करै सो आज कर, आज करै से अब्ब। पल में परलै होयगा, बहुरि करैगा कब्ब।।*
भर दिन, भर रात बैठकर भजन नहीं करने कहा जाता। *समय बांध-बांधकर भजन करो। काम करते हुए भी भजन करो और काम छोड़-छोड़कर भी भजन करो।* ब्राह्ममुहुर्त्त में मुँह-हाथ धोकर, निरालस होकर भजन करो। दिन में स्नान के बाद भजन किया करो। *तन काम में मन राम में’ हमारे यहाँ प्रसिद्ध है, इसको काम में लाओ।* फिर सायंकाल भी बैठकर भजन करो। रात में सोते समय भजन करते हुए सोओ, तो खराब स्वप्न नहीं होगा। नाम-भजन को लोग जानते हैं कि गुरु ने जो मंत्र दिया है, वही नाम-भजन है। वह नाम-भजन है किंतु और भी नाम-भजन है। जो शब्द लोग बोल सकते हैं, सुन सकते हैं, वह वर्णात्मक नाम-भजन है। ध्वन्यात्मक नाम-भजन भी होता है। वह ध्वनि तुम्हारे अंदर है। उस ब्रह्म ध्वनि में जो अपने मन को लगाता है, तो वह शब्द से खींचकर ब्रह्म तक पहुँचा देता है। *नाम का जप और नाम का ध्यान भी होता है। वर्णात्मक नाम का जप होता है। जिसकी युक्ति गुरु बताते हैं और ध्वन्यात्मक नाम का ध्यान होता है। इसकी भी युक्ति गुरु बताते हैं।* इस साधन के लिए भला चरित्र से रहना होगा। जिसका चरित्र भला नहीं है, जो सदाचार का अवलम्ब नहीं लेता है, वह विषयों में - भोगों में बँधा रहता है। जब वह भजन करने लगता है तो उसका मन गिर-गिर जाता है। इसलिए *अपने को पवित्र आचरण में रखो।*
*जाकी जिभ्या बंध नहीं, हिरदे नाहीं साँच। ताके संग न चालिये, घाले बटिया काँच।।*
जिभ्या पर खाने और बोलने का बंधन रखो। झूठ और कड़वा बोलना खराब है। झूठ बोलना सब *पापों की जड़ है। कड़वा बोलना आपस में फूट पैदा करता है। इसलिए सत्य बोलो और नम्र होकर रहो।*
*साधू सोई सराहिये, साँची कहे बनाय। कै टूटै कै फिर जुरै, कहे बिन भरम न जाय।।*
जो साँच बोलते हैं और कड़वा बोलते हैं तो उसको भी लोग सहन नहीं कर सकते। *जो भोजन तुम्हारी बुद्धि को नीचा करे, शरीर में रोग पैदा करे, वह मत खाओ।* इसके लिए संतों ने कहा -
*मांस मछरिया खात है, सुरा पान से हेत। सो नर जड़ से जाहिंगे, ज्यों मूरी की खेत।। यह कूकर को खान है, मानुष देह क्यों खाय। मुख में आमिख मेलता, नरक पड़े सो जाय।।*
मांस, मछली तथा नशा आदि खाने-पीने से पाशविक वृत्ति रहती है। इसमें राजस-तामस वृत्ति रहती है। सात्तिक वृत्ति से भजन होता है। *इस प्रकार के भोजन से सात्त्विक बुद्धि दमन हो जाती है और राजस-तामस की प्रधानता हो जाती है। जिससे भजन में चंचलता और आलस आता रहता है।* जो भोजन शीघ्र नहीं पचे, वह भोजन भी मत करो। क्योंकि यह भी भजन नहीं होने देता। जितने नशे हैं, यहाँ तक कि तम्बाकू तक लेने योग्य नहीं। इसलिए कबीर साहब ने कहा –
*भाँग तम्बाकू छूतरा, अफयूँ और शराब। कह कबीर इनको तजै, तब पावे दीदार।।*
तम्बाकू को लोग साधारण समझते हैं, किंतु यह भी बहुत बुरी नशा है। नशाओं से, कुभोजन से, कड॒वी बात से और असत्य भाषण से बचो। इन्द्रियों में संयम रखो और भजन करो तो भजन बनेगा। केवल भाँग, तम्बाकू ही नशा नहीं है, बल्कि -
*मद तो बहुतक भाँति का, ताहि न जाने कोय। तन मद मन मद जाति मद, माया मद सब लोय।। विद्या मद और गुनहु मद, राजमद्द उनमद्द। इतने मद को रद्द करें, तब पावे अनहद्द।।*
इन सब नशाओं को भी छोड़ना चाहिए। यही संतों का उपदेश है। *जो संतों के उपदेश के अनुकूल रहते हैं, वे पवित्र हैं। जो संतों के उपदेश के अनुकूल नहीं चलते, वे किसी कारण पवित्र क्यों न कहे जाएँ, किंतु अपवित्र हैं। यथार्थ में हृदय पवित्र होना चाहिए।* शरीर पवित्रता के लिए क्या बात है? शिवजी के रूप को देखिए, अमंगल वेष रहने से अपवित्र नहीं है। हृदय की पवित्रता चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं कि स्नान नहीं करे, पवित्रता से नहीं रहे, शारीरिक पवित्रता भी चाहिए। *झूठ सब पापों का झोरा है। सत्य बोलनेवाले का झूठ का झोरा जल जाता है।* जो सत्य बोलता है, उससे कोई पाप नहीं हो सकता है। साँच बोलने की जिसकी प्रतिज्ञा रहेगी, वह चोरी नहीं करेगा, कोई पाप नहीं करेगा। चोरी करने से झूठ बोलकर छिपाता है। सत्य बोलो तो चोरी भी छूट जाएगी। हिंसा मत करो। हिंसा करोगे तो क्या होगा? संत कबीर साहब ने कहा -
*कहता हूँ कहि जात हूँ, कहा जो मान हमार। जाका गर तू काटिहौं, सो फिर काट तोहार।।*
कर्मफल किसी को नहीं छोड़ता। श्रीराम-सीता वन गए। वे गंगा नदी के किनारे ठहरे। पत्तों के बिछौना पर श्रीसीता-राम लेटे थे और लक्ष्मण पहरा दे रहे थे। वहाँ गुहनिषाद भी बैठा और कहा कि कैकेयी ने इनको बहुत दुःख दिया। तब लक्ष्मणजी ने कहा कि -
*काहू न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत कर्म भोग सुनु भ्राता।।*
युधिष्ठिर को थोड़ा-सा झूठ बोलने का फल भी मिला ही। यद्यपि वह भगवान के समक्ष और उनकी प्रेरणा से बोला था। भगवान श्रीकृष्ण को भी व्याधा ने तीर से मारा। यह भी कर्मफल ही था। इसलिए हिंसा से बचो। व्यभिचार मत करो। पर पुरुषगामिनी स्त्री व्यभिचारिणी है और परस्त्रीगामी पुरुष व्यभिचारी है। इन पंच पापों से बचो। एक ईश्वर पर विश्वास करो, उनका पूरा भरोसा करो। उनकी प्राप्ति पहले अपने अंदर होगी। उनकी प्राप्ति पहले अपने अंदर होगी, फिर सर्वत्र। *ध्यान करो, सत्संग करो और गुरु की सेवा करो। पहले कहे पंच निषेध कर्मों को नहीं करो और पीछे कहे पंच विधि कर्मों को करो।* यही ‘विधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रविनन्दिनी बरनी।।' है। इस तरह अपने जीवन को बिताने पर मुक्ति मिलेगी। मुक्ति होने से स्वयं मालूम होगा कि मुक्ति मेरी हो गई। जैसे भोजन करने से स्वयं मालूम होता है कि पेट भर गया। जो जीवन-मुक्ति प्राप्त कर लेता है, मरने पर उसे विदेह-मुक्ति हो जाती है। *यदि मुक्ति नहीं हुई तो भगवान श्रीकृष्ण के कहे अनुकूल बहुत वर्षों तक स्वर्गादि का भोग करके इस संसार में किसी पवित्र श्रीमान् के घर में जन्म लेगा। अथवा योगियों के कुल में ही जन्म लेगा। इस प्रकार का जन्म इस लोक में बहुत दुर्लभ है। फिर वह पूर्व जन्म के संस्कार से प्रेरित होकर साधन-भजन करेगा और अनेक जन्मों के बाद मुक्ति को प्राप्त कर लेगा।* यह कभी नहीं भूलना चाहिए, सदा याद रखना चाहिए कि *सदाचार के धरातल पर भजन-रूप मकान बनता है।*
यह प्रवचन रविदास सत्संगियों के संतमत सत्संग मंदिर, सिकन्दरपुर, भागलपुर में दिनांक 18.3.1955 ई० के सत्संग में हुआ था।
*श्री सद्गुरु महाराज की जय*