*"Environment Protection From Hindi's Philosophy!"*
*"संरक्षण; हिन्दू दर्शन का आधार! आज पूरा विश्व!यू एन ओ! और दुनियां की तमाम संस्थाएं प्रकृति-पर्यावरण-प्रकृति संरक्षण के बारे में बात करती हैं लेकिन हमारे उपनिषदों में, हमारे वेदों में, हमारे धार्मिक ग्रंथों में सदियों पहले प्रकृति के संरक्षण का तत्व, प्रकृति संरक्षण का उद्देश्य व उसकी देशना समाहित है। हमारा संबुद्ध समाज सदैव इस बात को मानता रहा है कि- यदि प्रकृति संतुलित होगी तो सबकुछ संतुलित होगा, यही तो शांति मंत्र उल्लेखित भी है- *"ओउम द्ध्यो शान्तिः अंतरिक्षगम शान्तिः पृथ्वी शान्तिः रापः शान्तिः औषधयः शान्तिः वनस्पतयः शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः। वनस्पति, औषधि प्रकृति के इन सभी अवलंबन की बात हो रही है, अंतरिक्ष गम शान्तिः यानि सर्वत्र पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु,आकाश इन सभी में शांति होगी तो हमारे जीवन में भी संतुलन उत्पन्न होता है। मानव शरीर की संरचना ही प्रकृति से हुई है इसलिए प्रकृति का हमारे जीवन में अहम योगदान है। हम सभी प्रकृति का ही प्रतिनिधित्व करते हैं क्योंकि हमारा शरीर जिन पंच-तत्वों से बना है वह सभी प्रकृति के मूल तत्व हैं- जल, पृथ्वी, अग्नि, आकाश, वायु के मिलन से ही हम बने हैं और मृत्युउपरांत हमारा शरीर पुनः इन्ही पंच तत्त्वों में समाहित हो जाता है। हमें प्रकृति का संरक्षण करना चाहिए। जो प्रकृति हमारे भौगोलिक वातावरण में हमारे जीवन के साथ जुड़ी हुई है उस प्रकृति का हमें पालन करना चाहिए साथ ही उस प्रकृति का भी जो हमारे व्यवहार में अंतर्निहित है, हमारी स्वभावगत प्रकृति ही हमारे जीवन की ऊर्जा का संतुलन रखती है। हम जिस प्रकृति से बने हैं! हमारी जो आत्मदृष्टि है!हमारा जो आत्मावलोकन है! हमारी जो आंतरिक यात्रा है अर्थात हम अपने जीवन के बारे में क्या सोचते-विचारते हैं, कैसी हमारी प्रकृति है? जैसे कभी हम कहते हैं ना- कि यह बात आपको शोभा नही देती!ये विचार उस पर अच्छा नही लगता! ये बात तुम्हारे मुंह से अच्छी नही लगती! आदि सभी मनुष्य की प्रकृति से जुड़ी बात ही है जो मनुष्य का स्वभाव, गुण, अभिवृतियाँ हैं वह मानव की आंतरिक प्रकृति का द्योतक है। मनुष्य के जीवन में बहुत बार ऐसे अवसर आते हैं जब प्रलोभन के चलते, भय के चलते, लाभ के चलते, लोभ के चलते, किसी प्रलाप व विलाप के चलते, किसी संताप के चलते मनुष्य की प्रकृति की परीक्षा होती है तब उसे ऐसे समय में भी अपनी प्रकृति संतुलित रखनी चाहिए। जब हम अपने आप में स्थिर हो कर स्वभाव में रहते हैं तो जीवन के सुखद परिणाम प्राप्त करते हैं। ना किसी के प्रभाव में जियो न ही किसी प्रकार के आभाव में जियो! जीना है तो स्वयं के स्वभाव में जियो। जब मनुष्य अपने स्वभाव में प्रकृति के साथ लयबद्ध हो कर जीता है तो उसके जीवन से रोग, राग, ऋण और सभी प्रकार की आग-अग्नि सब तिरोहित हो जाती हैं। तत्पश्चात जब उस मनुष्य के कदम जहां पड़ते हैं वहाँ सुख-समृद्धि-शांति-आनंद-प्रेम सभी सद्गुणों का अम्बार होता है और तब मनुष्य कहलाता है- अमृतस्य पुत्रः! अमृत के पुत्र! परमात्मा के वंशज!परमात्मा के पुत्र...और यही हमारे जीवन का अंतिम पायदान है अंतिम निष्पत्ति है वही हमारी यात्रा का अंतिम गंतव्य भी है।
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कामेंट्स
GAJANAND AGRAWAL Sep 12, 2017
jai Shri ram