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|| गुरुभक्तियोग कथा अमृत ||
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26/02/2021
*◆तीस्य की बात सुन बुद्ध प्रसन्न हुये व दूसरी ओर सारे शिष्य रो पड़े… क्यों सुने…◆*
नम्रतापूर्वक, स्वेच्छापूर्वक , संशयरहित होकर बाह्य आडंबर के बिना द्वेषरहित बनकर असीम प्रेम से अपने गुरु की सेवा करो। पृथ्वीपर के साक्षात ईश्वरस्वरूप गुरु के चरणकमलों में आत्मसमर्पण करोगे तो वे भय स्थानों से आपका रक्षण करेंगे। आपकी साधना में आपको प्रेरणा देंगे तथा अंतिम ध्येय तक आपके पथप्रदर्शक बनेंगे।
संध्या की बेला थी। सूर्यास्त को जा रहे थे। अभी 3 दिन पहले ही तो वैशाली के आम्रवन में बुद्ध ने अपने सभी भिक्षुकों और अनुयायियों की सभा बुलाई थी। उसमें अपने अस्तागमन के संकेत दिये थे। प्रवचन करते-करते वे सहसा कह बैठे कि "मेरे प्रज्वलित दीपों! सावधान! आज से ठीक 4 माह बाद मैं महानिर्वाण के शून्य में लीन हो जाऊंगा। अपनी यह देह त्याग दूंगा। इसलिए अब समय की थोड़ी बहुत बालू ही तुम्हारी मुट्ठी में बची है। इसलिए जो करने योग्य है वह करलो, जो लेना-देना है वह निपटालो।"
इतना कहकर वह उठे थे और अपनी कुटीर की ओर बढ़ गये थे। बस तभी से संघ में शाम ढल आई। सभी को घोर अमावस की मानो रात्रि ने घेर लिया। गुरुवर अब नहीं आयेंगे…? हम उपदेश देते हुए अब उन्हें नहीं सुन सकेंगे…? ऐसे कई प्रश्न उठने लगे। क्या उन्हें चलते-फिरते, कहते-सुनते, हंसते-मुस्कुराते हम नहीं देख पायेंगे…? उनकी प्यारी-सी मीठी मुस्कान, उनकी दिव्य वाणी, उनका ओजस्वी और प्यारे से भी प्यारा मुखमंडल…क्या सच में…यह सब नहीं होगा? उनके युगलचरण जिन पर मस्तक तक रखकर वैकुंठ की चाह भी नहीं रहती थी, जिनके चरणरज में लोटने की आदत हमको पड़ चुकी है… क्या वे अब…? और जो कृपाहस्त जो आशीर्वाद देने के लिए उठते हैं तो संघ झूम उठता है, हजारों झोलियां पसर जाती है… क्या वे भी…? आज गुरुवर हल्का सा भी मुस्कुरा देते हैं तो सभी भक्तों की कलियां मुस्कुराकर फूल बन जाती है। वे गंभीर हो जाते हैं तो हमारी धड़कनें बढ़ने लगती हैं, हम अपने कर्मों को टटोलने लगते हैं की हमने क्या कर्म किये की गुरुदेव गंभीर हो गये। वे गति से चलने लगते हैं तो हमारे हौसले हवा से बातें करने लगती हैं; परन्तु क्या अब हमारा यह सारा संसार खो जायेगा…?
सचमें एक सच्चे शिष्य के लिए गुरु ही उसके समस्त संसार होते हैं।
*हम जाने गुरुवर, या तुम जानो,*
*हमें तुमसे है कितना प्यार!*
*तुमही जिगर में, तुमही नजर में,*
*तुमही मेरा संसार!*
सोचो जिनसे जीवन की हर आशा बंध चुकी हो, हर श्वास की तार जुड़ गई हो, जिनका दर्शन करने का आँखों को चस्का लग बैठा हो और आँखों की पलकें भी मुड़ती इसी खुशी में हो कि स्वप्न में आज गुरुवर आयेंगे और वहीं गुरुदेव अपने अलौकिक रूप को सदा-सदा के लिए छिपाने की बात कहें…
बुद्ध के शिष्य भी साँसों में यहीं खींच महसूस कर रहे थे। हालांकि दर्द सबका साझा था, सबकी एक जैसी नब्ज दुख रही थी, मगर कराहट बड़ी अलग-अलग उठी। कोई तो रो- रोकर अधमरा-सा हो रहा था। तब तक रोता जबतक जमीन पकड़कर न गिर जाता। कुछ अनुयायी सिर जोड़कर झुंड बनाकर बैठ जाते, फिर आंसू बहाते। कई सयाने शिष्य तो राजनैतिक चिंताये भी उन्हें कचोटने लगती थी। यह की अब आश्रम और संघ की बागडौर कौन संभालेगा? बुद्ध के पदपर कौन बैठेगा? अवश्य ही बुद्ध के नामपर भव्य मंदिर या स्मारक बनने चाहिए। अभी से चंदा इकठ्ठा कर लेना चाहिए।
शिष्यों का एक वर्ग और भी था बड़ा ही अद्भुत! बुद्ध की अलौकिक देह अब हमारे बीच नहीं होगी। यहीं सोचकर वे बावरे से हो गये। खड़ाऊ, चोले, भोजनपात्र, कुश आसन के लिए आपाधापी मचा दी। जिस-जिस वस्तु को गुरुवर ने स्पर्श किया था, वे खींचातानी करके उसे बटौरने में लगे, यादगार, निशानियों के तौर पर।
बुद्ध अपने शिष्यों की यह रंगारंग लीला देख रहे थे। उनकी पारदर्शी आंखे हृदय के कोने-कोने में झांक रही थी। परन्तु इनकी भीड़भाड़ के बीच एक हृदय और भी था, जिससे वे आशा बंधी दृष्टि से निहार रहे थे। यह हृदय था उनके शिष्य तीस्य स्थविर का। तीस्य नितांत मौन था। उसके होंठ सील चुके थे। आँखों से एक भी आंसू ना टपका था। ना हँसता था, ना रोता था, तल्लीन खोया-खोया सा। सभी ने सोचा कि उसे गहरा सदमा लगा है।
दो महीनों का सफर तय हो चुका था। अचानक एक दिन गुरुदेव ने फिर एक महासभा बुलाई। जिसमें शामिल होने के लिए शिष्यों का पूरा हुजूम दौड़ पड़ा। बुद्ध आम्रवृक्ष के घनी छाया के तले बैठे। ऊपर शाखाओं पर कच्चे, अधपके और पके हर तरह के आम झूल रहे थे। नीचे महात्मा बुद्ध के सामने भी हर अवस्था के अनुयायी बैठे थे। बुद्ध ने इस विशाल शिष्यसमूह पर दृष्टि घुमाई। गुरु की दृष्टि बहुत गहरी होती है। पारलौकिक दृष्टि होती है। मानो गहराई तक हृदय का मंथन कर रही थी। आखिरकार बुद्ध बोले की मैंने तुमसे कहा था कि जो करनेयोग्य है वो करो। कहो तुम सब क्या-क्या कर रहे हो?
एक दल झट खड़ा हुआ। बोला– "गुरुदेव! हम सब विषाद की खाइयों में खो गये हैं। झुंड बनाकर रो रहे हैं, आप के प्यार में खूब आंसू बटौर रहे हैं।"
बुद्ध की दृष्टि दूसरे दल पर गई। शिष्यों ने कहा– "प्यारे गुरुवर! हम सब चिंता की सिंधु में डूब गये हैं। झुंड बनाकर आश्रम की सुचारू व्यवस्था के बारे में सोचते हैं। फिर आपके ऐतिहासिक स्वर्णजड़ित स्मारक भी तो बनवाने हैं। इसलिए हम चिंता और चंदा दोनों बटोर रहे हैं।"
बुद्ध ने तीसरे दल की ओर निहारा। वे तो अपनी झोलियों में अपनी उपलब्धियां लिये बैठे थे। किसीने बुद्ध को उनका ही करमण्डल उठाकर दिखा दिया। किसी ने जीवर,किसी ने खड़ाऊ। वो बोले देखे गुरुदेव! हम कितने जतन से आपकी पवित्रतम चीजों को इकट्ठा कर रहे हैं।
अंत में बुद्ध की सर्वव्यापक दृष्टि ने तीस्य का स्पर्श किया। "बोलो वत्स! तुम क्या बटोर रहे हो?" यह पूछते हुये बुद्ध की आंखों में आशाएँ झिलमिला उठी।
प्रश्न सुनकर तीस्य उठा। बुद्ध के श्रीचरणों में अपना मस्तक रख दिया कुछ देर उन्हीमें लीन रहा फिर हाथ जोड़कर सीधा खड़ा होकर कहा, "गुरुदेव! मैं खुद को खो रहा हूँ और आपको बटौरने की कोशिश कर रहा हूँ।" यह सुनते ही सभा के कान खड़े हो गये।
बुद्ध ने कहा- "तीस्य! अपनी भावदशा को शब्दों का सहारा दो।" यह सभी समझना चाहते हैं।
तीस्य ने आगे कहा कि "गुरुदेव! जब आपसे सुना कि आप चार माह बाद समाधिस्थ हो जायेंगे। उसी दिन मैंने अपने अंदर झाँका। अपने को बिल्कुल कंगाल पाया। मैं बाहर ही नहीं भीतर भी भिक्षुक ही था। वहाँ आप तो कहीं थे ही नहीं। मेरी ही मान्यतायें थी। मेरी आत्मा धिक्कार उठी कि तेरे गुरुदेव जानेवाले हैं और तूने अबतक गुरु को पाया ही नहीं। बस तभी से मैंने अपना सारा चिंतन आपके एक-एक आदर्श को चुनने और गुनने में लगा दिया। अपना सारा ध्यान आपकी प्यारी मूरत में बसा दिया। अपने सारे भावों के धागे आपके चरणों में बांध दिये। हर श्वास की माला में आपके सुमिरन के मोती गूथ दिये यहीं व्रत लिया की अब ज्यादा हिलू-डुलूँगा नहीं, बोलूंगा नहीं। सारा बल आपको बटोरने में लगा दूंगा। हे दयानिधि! कृपा करो मेरा व्रत पूरा हो। आपके देहत्याग के पहले यह तीस्य विदा हो जाये। उसकी देह में आप समा जाये। बस आप ही आप रह जाये।"
तीस्य कि आखिरी पंक्ति के साथ ही आम्रवृक्ष से एक पका हुआ आम नीचे गिरा। बुद्ध उसे देखकर मुस्कुराये और बोल उठे,"यह आम पक चुका है। इसने सार को अपने में समेट लिया है। सूर्य के अस्त होने के बाद भी यह आम मीठे रस से भरा ही रहेगा। तीस्य के लिए मैं जाकर भी नहीं जाऊँगा। तीस्य के लिए मैं सदैव उसके पास रहूंगा।"
अबतक महासभा आंसूओं से भीग चुकी थी, लज्जा से लाल थी। उनकी दशा देखकर डालियों पर झूलती कच्ची अंबियों ने मानो बुद्ध से पूछा कि "हे भुवनभास्कर! हे ब्रम्हांड के सूर्य आप अपनी किरणों को समेट रहे हैं, परन्तु हम तो कच्ची ही रह गई। अब हमारा क्या होगा?"
बुद्ध फिर मुस्कुराये और बोले, "अगले दिन मैं प्रभात लेकर फिर आऊँगा एक अलग रूप में ताकि तुम्हें सींककर मीठे रस से भर पाऊं। तुम्हें सीखा सकूं कि गुरु के रहते-रहते क्या बटोरना चाहिए…"
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